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धागों से परे: भारत में रक्षा बंधन के अनूठे रंग, कहीं भाई की कलाई तो कहीं भाभी की चूड़ी पर सजती है राखी

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Posted On:Wednesday, August 6, 2025

मुंबई, 6 अगस्त, (न्यूज़ हेल्पलाइन) श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन, जब हवा में एक खास मिठास और अपनेपन की महक घुल जाती है। यह दिन है रक्षा बंधन का, एक ऐसा त्योहार जो भाई-बहन के पवित्र और अटूट रिश्ते का जश्न मनाता है। यह सिर्फ एक धागे का बंधन नहीं, बल्कि प्यार, विश्वास और सुरक्षा के वादे का प्रतीक है। जहाँ पूरे देश में बहनें अपने भाइयों की कलाई पर राखी बांधकर उनकी लंबी उम्र की कामना करती हैं, वहीं भारत की सांस्कृतिक विविधता इस त्योहार को कई अनूठे और खूबसूरत रंगों में रंग देती है। ये परंपराएं दिखाती हैं कि इस त्योहार का मर्म कितना गहरा और व्यापक है।

मारवाड़ी और राजस्थानी परंपरा: 'लुंबा राखी' का स्नेह

जब हम रक्षा बंधन की बात करते हैं, तो अक्सर भाई की कलाई पर बंधी राखी की तस्वीर ही मन में आती है। लेकिन राजस्थान और मारवाड़ी समुदायों में यह त्योहार एक कदम आगे बढ़कर रिश्तों की एक और खूबसूरत कड़ी को सम्मान देता है। यहाँ बहनें न केवल अपने भाई को, बल्कि अपनी भाभी को भी राखी बांधती हैं, जिसे 'लुंबा राखी' कहा जाता है। यह लुंबा राखी, जो भाभी की चूड़ी से बांधी जाती है, सिर्फ एक धागा नहीं, बल्कि एक संदेश है। यह कहता है कि भाई की तरह ही भाभी भी परिवार का एक अटूट हिस्सा है और उसकी सुरक्षा और खुशी भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। यह परंपरा इस बात का प्रतीक है कि एक महिला ही दूसरी महिला के महत्व और सुरक्षा को सबसे बेहतर समझ सकती है। यह न केवल ननद-भाभी के रिश्ते को मजबूत करती है, बल्कि परिवार में महिलाओं के बीच एक गहरे भावनात्मक बंधन को भी दर्शाती है।

उत्तराखंड का अनूठा 'रक्षा सूत्र': सिर्फ भाई-बहन तक सीमित नहीं

पहाड़ों की गोद में बसे उत्तराखंड में रक्षा बंधन का स्वरूप और भी व्यापक हो जाता है। यहाँ इसे 'श्रावणी' के नाम से भी जाना जाता है, जहाँ जनेऊ पहनने वाले ब्राह्मण पुराने जनेऊ को बदलकर नया धारण करते हैं। इस दिन रक्षा का संकल्प सिर्फ भाई-बहन तक ही सीमित नहीं रहता। लोग एक-दूसरे की कलाई पर रक्षा सूत्र बांधते हैं, चाहे वे परिवार के सदस्य हों, दोस्त हों या पड़ोसी। यह परंपरा सामाजिक सौहार्द और सामूहिक सुरक्षा की भावना को दर्शाती है। इसका संदेश है कि हम सब एक बड़े समुदाय का हिस्सा हैं और एक-दूसरे की रक्षा करना हमारा साझा कर्तव्य है। यह त्योहार की सीमाओं को व्यक्तिगत रिश्तों से उठाकर सामाजिक एकता के एक बड़े मंच पर ले जाता है, जो उत्तराखंड की सामुदायिक भावना का सच्चा प्रतिबिंब है।

महाराष्ट्र का 'नारली पूर्णिमा': जब प्रकृति से जुड़ता है बंधन

महाराष्ट्र के तटीय इलाकों में, विशेषकर कोली समुदाय के बीच, रक्षा बंधन का दिन 'नारली पूर्णिमा' के रूप में मनाया जाता है। यह दिन समुद्र देवता वरुण को समर्पित होता है, जो उनकी आजीविका का स्रोत है। इस दिन मछुआरे समुद्र की पूजा करते हैं और उसे नारियल अर्पित करते हैं, ताकि समुद्र शांत रहे और उनकी यात्रा सुरक्षित हो। यह परंपरा प्रकृति के प्रति कृतज्ञता और सम्मान का एक अद्भुत उदाहरण है। यह हमें सिखाती है कि हमारे त्योहार सिर्फ इंसानी रिश्तों का जश्न नहीं, बल्कि उस प्रकृति के साथ हमारे गहरे जुड़ाव का भी उत्सव हैं जो हमारा पालन-पोषण करती है। यह एक अनुष्ठान है जो जीवन और आजीविका के रक्षक, यानी समुद्र के प्रति आभार व्यक्त करता है।

ओडिशा और पश्चिम बंगाल: 'गम्हा पूर्णिमा' और 'झूलन पूर्णिमा'

ओडिशा में इस दिन को 'गम्हा पूर्णिमा' के रूप में मनाया जाता है, जो कृषि से जुड़ा एक महत्वपूर्ण पर्व है। इस दिन किसान अपने पालतू पशुओं, विशेषकर गाय और बैलों को सजाते हैं, उनकी पूजा करते हैं और उन्हें स्वादिष्ट पकवान खिलाते हैं। यह उन मूक प्राणियों के प्रति सम्मान और कृतज्ञता का प्रतीक है जो खेती में उनके साथी होते हैं। वहीं, पश्चिम बंगाल में यह दिन 'झूलन पूर्णिमा' के रूप में मनाया जाता है, जो भगवान कृष्ण और राधा के प्रेम को समर्पित एक पांच दिवसीय उत्सव का अंतिम दिन होता है। यहाँ भी बहनें भाइयों को राखी बांधती हैं, लेकिन त्योहार का आध्यात्मिक और भक्तिमय माहौल इसे एक अलग ही रंग देता है।

ये विविध परंपराएं भारत की आत्मा की तरह हैं - अनेकता में एकता। चाहे वह भाभी के लिए 'लुंबा राखी' का स्नेह हो, उत्तराखंड का सामाजिक 'रक्षा सूत्र' हो, महाराष्ट्र का प्रकृति से जुड़ा 'नारली पूर्णिमा' का उत्सव हो या ओडिशा का कृषि से संबंधित 'गम्हा पूर्णिमा' का पर्व, हर परंपरा का सार एक ही है - रक्षा का वादा, स्नेह का बंधन और रिश्तों का सम्मान। यह त्योहार हमें याद दिलाता है कि प्यार और सुरक्षा की भावना किसी एक रिश्ते तक सीमित नहीं है, बल्कि यह परिवार, समाज और प्रकृति तक फैली हुई है।


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